युवाओं के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद की जयंती 12 जनवरी को हर साल बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। महान उद्देश्य के लिए 25 वर्ष में ही सन्यास ग्रहण कर लेने वाला वह युवक भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लिए एक नजीर है।
21वीं सदी के निर्माण में युवाओं की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। युवा भारतीय गौरव को समझने के लिए अपने मार्गदर्शक के रुप में स्वामी जी के विचारों को अपना सकते हैं। भारत की गरिमा को विश्व पटल पर बरकरार रखने के लिए स्वामी विवेकानंद जी का नाम इतिहास में अजर-अमर है।
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेंद्र दत्त था। उनके पिता पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित थे। इसीलिए वह नरेंद्र को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता से उनको जोड़ना चाहते थे। लेकिन नरेंद्र बचपन से ही तीव्र बुद्धि के प्रतिभाशाली थे और परमात्मा को पाने की लालसा उनमें प्रबल थी।
ऐसे में वह भारतीय संस्कृति से ही 'सत्य के रहस्य' को खोजने का मार्ग चुना। परमात्मा की खोज में वह ब्रह्म समाज से जुड़े, लेकिन यहां से संतुष्ट नहीं हो सके। इसी बीच उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त की 1884 में मृत्यु हो गई।
परिवार पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। घर का भार नरेंद्र पर आ पड़ा। घर की दशा बड़ी खराब थी। अच्छी बात तो यह थी कि उस समय नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबी का सामना करना पड़ा। लेकिन फिर भी वह अपने मूल्यों और विश्वासों पर डटे रहे।
नरेंद्र स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते थे। स्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-
ठिठुरते पड़े रहते, लेकिन अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते थे। उनका यह महान त्याग अतिथि देवो भव: परंपरा से जुड़ा हुआ था।
रामकृष्ण परमहंस की बड़ी चर्चा उन्होंने सुनी थी। इसलिए स्वामी विवेकानंद जी उनसे मिलने गए। उनके मन में कई सवाल थे। वह स्वामी परमहंस से तर्क करना चाहते थे। लेकिन उनसे मिलकर वह बहुत प्रभावित हुए। परमहंसजी ने भी देखते ही पहचान लिया कि यह मेरा वही शिष्य है, जिसका मुझे कई दिनों से इंतजार था।
रामकृष्ण परमहंस की कृपया से इनको आत्मसाक्षात्कार हुआ। फलस्वरुप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। सन्यास ग्रहण करने के उपरांत नरेंद्र विवेकानंद बन गए। स्वामी विवेकानंद अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे।
गुरुदेव के शरीर त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना वह अपनी सेवा में लगे रहे। स्वयं भोजन किए बिना वह गुरु सेवा में सतत हाजिर रहते थे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। कैंसर के कारण गले में से थूक, रक्त, कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वह बड़े प्रेम भाव से करते थे।
एक बार गुरुदेव के एक अन्य शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाही दिखाई तथा घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं। यह देखकर स्वामी विवेकानंद को गुस्सा आ गया। उन्होंने उस गुरु भाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव के प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ से भरी थूकदानी उठाकर पूरी पी गए।
गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा और कहीं मिलना मुश्किल है। अपने जीवन के दिव्यतम आदर्शों और मूल्यों की उच्चता को बरकरार रखते हुए उन्होंने अपनी गुरुदेव की उच्चतम सेवा की। गुरुदेव को वह समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के रूप में विलीन कर सकें। यह उनकी महान त्याग के प्रति महान समर्पण दिखाता है।
वैश्विक समुदाय में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैलाने की क्षमता शायद वह अपने गुरुदेव के आशीर्वाद से ही पाए थे। उनके ऐसे महान व्यक्तित्व की नींव में ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा ही थी। 25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की।
अमेरिका के शिकागो शहर में सन् 1893 में विश्व धर्म परिषद का आयोजन हो रहा था। स्वामी विवेकानंद उस कार्यक्रम में भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे। यूरोप और अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीनदृष्टि से देखते थे। वह लोग भारत वासियों को दया भावना के साथ देखते थे। वहां पर कई लोगों ने यह प्रयास किया कि स्वामी विवेकानंद जी को बोलने का समय ही ना दिया जाए।
एक अमेरिकी प्रोफेसर के सहयोग से उन्हें थोड़ा समय मिला। उनके विचारों को सर्व धर्म परिषद सुनकर सन्न रह गई। विद्वानगण चकित रह गये। फिर तो अमेरिका में उनका बहुत जोरदार ढंग से स्वागत हुआ। वहां उनके चाहने वालों की एक बड़ी संख्या हो गई। वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया।
स्वामी विवेकानंद तीन वर्ष तक अमेरिका में रहे। वहां पर वह लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। लोगों को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से परिचित ही नहीं कराया बल्कि उनको आत्मसात करने की प्रेरणा प्रदान की।
स्वामी ने कहा था कि अध्यात्म- विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा। उनका यही विचार जिनके जरिए वह भारत को दुनिया में विश्व गुरु बनाने की बात करते है। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित की। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।
रविंद्र नाथ टैगोर ने एक बार स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा था, यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकानंद का अध्ययन करें। उसमें सब कुछ सकारात्मक है और कुछ भी नकारात्मक नहीं है।
उन्होंने युवाओं को एक बार संदेश देते हुए कहा, "एक विचार उठाओ, उस एक विचार को अपना जीवन बना लो- उसके बारे में सोचो, उसके सपने देखो, उसी विचार पर जिओ। मसि्तष्क, मांसपेशियां, नसों और शरीर के प्रत्येक भाग को इस विचार से भरा होने दो, और बस हर दूसरे विचार को अकेला छोड़ दो, यह सफलता का मार्ग है।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि बहती हुई नदी की धारा ही स्वच्छ, निर्मल तथा स्वास्थ्यप्रद रहती है। उसकी गति अवरुद्ध हो जाने पर उसका जल दूषित व अस्वास्थ्यकर हो जाता है। प्राकृतिक के समान ही मानव समाज में भी एक सुनिश्चित लक्ष्य के अभाव में राष्ट्र की प्रगति रुक जाती है और सामने यदि स्थिर लक्ष्य हो, तो आगे बढ़ने का प्रयास सफल तथा सार्थक होता है। यह बात आज हमारे जीवन के हर क्षेत्र में लागू होती है।
आगे कहते हैं कि आज के युवाओं को जिसमें देश का भविष्य निहित है, जिनमें जागरण के चिन्ह दिखाई दे रहे हैं। उनको अपने जीवन का एक उद्देश्य ढूंढ लेना चाहिए। हमेशा ऐसा प्रयास करना होगा ताकि उनकी भीतर जगी हुई प्रेरणा तथा उत्साह ठीक पथ पर संचालित हो। अन्यथा शक्ति का ऐसा अपव्यय या दुरुपयोग हो सकता है कि जिससे मनुष्य की भलाई के रास्ते पर पर ही बुराई होगी।
वे शारीरिक श्रम की भी बात करते थे। कहते हैं अधिकतर युवा सफल और अर्थपूर्ण जीवन तो जीना चाहते हैं, लेकिन अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वे शारीरिक रूप से तैयार नहीं होते। इसलिए स्वामीजी ने युवाओं से अपील की कि वे निर्भय बनें और अपने आपको शारीरिक रूप से स्वस्थ बनाएं। वे कहते थे कि किसी भी तरीके का भय न करो। निर्भय बनो। सारी शक्ति तुम्हारे अंदर ही है। कभी भी यह मत सोचो कि तुम कमजोर हो।
स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि युवा अधिक से अधिक संख्या में सामाजिक गतिविधियों में शामिल हो, जिससे न केवल समाज बेहतर बनेगा, बल्कि इससे व्यक्तिगत विकास भी होगा। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे वह जानकारियों का बंडल नहीं ब्लकि बौद्धिक विकास के मार्ग का नेतृत्व करें।
स्वामी विवेकानंद ने पश्चिमी सभ्यता की सराहना तो की परंतु भारतीय दर्शन और अध्यात्म के प्रेम में वे वशीभूत थे। उन्होंने भारतीय युवाओं से कहा कि पश्चिमी सभ्यता से बहुत कुछ सीखने को है, परंतु भारत के अध्यात्मिक थाती का कोई सानी नहीं है। इसलिए युवाओं को अपने जीवन में अध्यात्मिकता का भाव अवश्य रखना चाहिए।
उनका मानना था कि जीवन भले छोटा हो लेकिन आत्मा अजर- अमर होनी चाहिए। स्वामी विवेकानंद एक कर्मयोगी भी थे। उन्होंने सिर्फ शिक्षा ही नहीं दिए बल्कि उसको अपने जीवन में भी उतारा। उनका स्पष्ट मत था कि समाज के सबसे कमजोर तबके की सेवा हमें निरंतर करते रहना चाहिए।
4 जुलाई सन् 1902 को उन्होंने अपना देह त्याग दिया दिया। उनकी आत्मा अजर-अमर हो गई। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहना पसंद करते थे। भारत के गौरव को उन्होंने पूरे वैश्विक समुदाय में उज्जवल करने का सदा प्रयत्न किया। वे लोगों की स्मृतियों में हमेशा बने रहेंगे।
विकास धर
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