डायरी से: 'रुकोगी नहीं राधिका' उपन्यास की समीक्षा

13 जनवरी, 2024: मन्नू भंडारी की 'महाभोज' के बाद बड़े दिन हो गए थे कि मैंने कोई उपन्यास नहीं पढ़ा था। पिछले दिनों उषा प्रियंवदा का 'रुकोगे नहीं राधिका' उपन्यास पढ़ा। उपन्यास की कहानी ने मन को झिंझोड़कर रख दिया। आजादी के बाद के उपन्यासों की यही तो सबसे बड़ी खासियत है, जो उन्हें साहित्य में अद्वितीय बनाती हैं। 

राधिका, इस उपन्यास की नायिका के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। जो 2 साल के लिए विदेश जाती है और वहां पर उसे ‘कल्चरल शॉक’ और स्वदेश में वापस लौटने पर ‘रिवर्स कल्चरल शॉक’ का झटका लगता है। और नायिका को कुछ ऐसा महसूस करने पर बाध्य कर देता है कि ‘‘मेरा परिवार, मेरा परिवेश, मेरे जीवन की अर्थहीनता, और मैं स्वयं जो होती जा रही हूँ, एक भावनाहीन पुतली-सी’’ है।

यह सिर्फ एक स्त्री के मन के भावों की कहानी नहीं है बल्कि यह सभी स्त्रियों के मानसिक द्वंद्व का चित्रण है। पिता के जीवन में किसी दूसरी स्त्री के प्रवेश से: पहली पत्नी के बच्चों और पिता के संबंधों में हुए परिवर्तन का भी उपन्यास आकलन करता है। 

आज की युवाओं में सबसे बड़ा संकट पार्टनर चुनने का है। जो यह जानते हुए भी अंजान बने रहना चाहते है कि कुछ भी परफेक्ट नहीं है। लेकिन फिर भी परफेक्ट की तलाश करते रहते है, ठीक वैसे भी राधिका एक परफेक्ट पार्टनर की तलाश कर रही है। जो उसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर देता है। 

राधिका अक्षय और मनीष दो लोगों को पसंद करती है। अक्षय में एक तरह का ठहराव है जिसकी उसे चाह है परन्तु उसका व्यक्तित्व उसे मामूली लगता है जबकि मनीष का व्यक्तित्व और जीवन शैली उसे मानसिक और शारीरिक रूप से आकर्षित करती है। लेकिन मनीष में ठहराव नहीं है, वह फिसल सकता है।

ऐसी स्थिति में राधिका को क्या करना चाहिए? यह तय कर पाने में वह खुद को असमर्थ पाती है। यही प्रश्न है। यही दृंद है। यही संकट है। यही सबसे बड़ा सवाल है। इस प्रश्न का उत्तर राधिका ही नहीं न जाने कितनी युवा ढूंढ रहे हैं। उन्हें परफेक्ट के विचार को त्याग कर स्वीकारता के विचार पर बल देना होगा। 

टिप्पणियाँ