मूल्यविहीन राजनीति की घटती बिसात

 देश जहां अमृत महोत्सव बना रहा है वही केंद्र सरकार कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करके संवैधानिक मूल्यों पर सवाल उठा दिया है। महोत्सव के काल में वोट के खातिर लोकतांत्रिक राजनीति के समकालीन मुद्दे भी चर्चा के केंद्र में बने हुए है। हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता संग्राम की आग में तप कर भारत में स्थायी विकास हेतु समन्वय, सहयोग, समता, समानता, सहृदयता और संवेदनशीलता का मार्ग चुना था। भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्र हुए राष्ट्रों में औपचारिक या अनौपचारिक रूप से गणतंत्र प्रणाली कायम हुई। लेकिन भारत की गणतंत्र की प्रणाली उन सब में नजीर है।

 

17 अप्रैल 1999 को केंद्र की वाजपेयी सरकार मात्र एक वोट से गिर गई। यह दिखाता है कि भारत ने वास्तव में एक अमूल्य क्षमता प्रकट कर ली है। जो विविधता में एकता का संदेश देता है। वैश्विक समुदाय के सम्मुख सामाजिकसांस्कृतिक एवं पंथिक सद्भाव की व्यवहारिकता का सशक्त उदाहरण भारत से बेहतर दुनिया में शायद कोई हो सकता है। भारत ने विज्ञान से लेकर आर्थिक क्षेत्र दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।

 

चुनावी राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों का लगातार हास हो रहा है। जो चिंताजनक है। नेताओं द्वारा बूथ लूटने से लेकर पैसे बांटने और शराब तक का प्रलोभन देना आम सा हो गया है। राजनीतिक दलों को ऐसे व्यवहारों को रोकना चाहिए लेकिन वह इसको रोकने के बजाय बढ़ावा देने पर ध्यान दे रहे हैं। ऐसे में विगत 7 दशकों की यात्रा का मूल्यांकन भी जरूरी हो जाता है। हमारे संविधान के निर्माताओं ने जिन आदर्शों को लेकर चला था। उन आदर्शों को बरकरार रखने की अब हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए।

 

"लोकतंत्र का स्वरूप ही पक्ष और विपक्ष के सिद्धांतों द्वारा प्रतिपादित होता है। बौद्धिक वर्ग और सिविल सोसायटी को इस पर नजर रखने की आवश्यकता है। चुनाव का कार्यक्रम तभी सफल होगा जब देश के सभी नागरिकों का राजनीतिक विकास होगा। राजनीतिक विकास एक अवधारणा है। इसको देखने और समझने का नजरिया भिन्न हो सकता है लेकिन राजनीतिक विकास का उद्देश्य सरकार को ही नहीं नागरिकों को भी पूरा करने में सहयोग देना चाहिए।"

 

किसी भी नागरिक या देश का समेकित विकास के लिए आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विकास आवश्यक होता है। अभी तक भारत सहित पुरे विश्व समाज में राजनीतिक विकास एक गंभीर राजनीतिक मुद्दा नहीं था। लेकिन आवश्यकताएं इस तथ्य पर विचार करने को प्रेरित कर रही हैं। जब तक मानव समुदाय का राजनीतिक विकास नहीं होगा तब तक वो ना तो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में पूर्ण रुप से विश्वास कर पाएंगे और ना ही अपने आप को व्यवस्था से जोड़ पाएंगे। ऐसे में राजनीतिक विकास कैसे होगा? इस पर अब चर्चा करने की आवश्यकता है।

 

संवैधानिक आदर्शों को बनाए रखने की भी जरूरत है। हाल में ही केंद्र की मोदी सरकार ने कृषि कानून को वापस लेने की घोषणा की है। वास्तव में कृषि कानून कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन करने वाले थे लेकिन वह संभव नहीं हो सका। परंतु ऐसे में कानूनों की प्रासंगिकता पर सवाल उठ जाता है। अगर नागरिकों के पास ऐसे कई उदाहरण हो जाएं तो उन्हें कानून से जो भरोसा होता है। वही उठ जाएगा। उस भरोसे और विश्वास को कायम रखने की आवश्यकता है।

 

किसी समस्या का समाधान संवाद के माध्यम से ही संभव हो सकता है। ऐसे में संवाद का रास्ता विवादों में चुनना चाहिए। आज अधिकांश नेता और राजनीतिक दल सकारात्मक दृष्टि से सोचने के बजाय नकारात्मकता पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। ऐसे में राष्ट्र के लिए यह एक बड़ी चुनौती है। देश के युवाओं को इस स्थिति को समझने और उसमें सुधार करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। जिससे कि वैश्विक समाज में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था एक सशक्त उदाहरण के रूप में स्थापित रहे।

 

विकास धर

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