पुस्तक समीक्षा: इतिहास न तो माफी के लिए है और न बदले के लिए



अंधकार काल : भारत में ब्रिटिश साम्राज्य
शशि थरूर
अनुवाद: नीरू और युगांक धीर 
पुनर्प्रकाशित संस्करण: 2020
वाणी प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 765 रुपए

शशि थरूर ने अपनी किताब ‘अंधकार काल : भारत में ब्रिटिश साम्राज्य’ में औपनिवेशिक इतिहास को एक नए पाठ के रूप में प्रस्तुत किया है। सन् 1600 में रानी एलिजाबेथ के द्वारा सिल्क, मसालों और अन्य भारतीय वस्तुओं के व्यापार के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद उपनिवेशवाद की शुरुआत और उससे उपजी समस्याओं को किताब में रेखांकित किया गया है।

इतिहास के पाठ को एक नए रूप में प्रस्तुत करने के लिए शशि थरूर ने इतिहासविदों, साम्राज्यवादी अधिकारियों के पत्रों, गजटों और अन्य समकालीन स्रोतों के अध्ययन के पाठों का सहारा लिया है। किताब की प्रस्तावना में लेखक बताते हैं कि किताब की भूमिका आॅक्सफोर्ड में दिए उनके उस भाषण के बाद शुरू हुई थी। 

जिसमें उन्होंने कहा था कि ब्रिटेन अपने पूर्व उपनिवेशों की क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी है और इसके लिए वह प्रायश्चित करे। उन्होंने अपने भाषण में ब्रिटेन से उपनिवेशवाद का हर्जाना के रूप में प्रस्ताव रखा था कि भारत को एक पाउंड प्रति वर्ष की दर से 200 वर्ष तक भुगतान की प्रतीकात्मक क्षतिपूर्ति से संतुष्ट हो जाना चाहिए।

उनके इस भाषण को देशव्यापी समर्थन मिला था। लेकिन यह कोई नई बात नहीं थी इससे पहले रोमेश चंद्र दत्त, दादाभाई नौरोजी और जवाहरलाल नेहरू भी ये बातें कह चुके थे। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह थी कि इससे आज भी बहुत से भारतीय अनजान थे। इस वजह से शशि थरूर ने यह पुस्तक लिखने का बीड़ा उठाया।

लेखक के शब्दों में 'आज के भारतीय और ब्रिटिश नागरिकों को उपनिवेशवाद की भयानकता के बारे में बताने की नैतिक आवश्यकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता’। लेखक इतिहास को लेकर अपनी समझ स्पष्ट करते हुए कहता है कि 'अतीत अनिवार्य रूप से भविष्य का मार्गदर्शक नहीं होता, परंतु यह वर्तमान की व्याख्या में आंशिक सहायता अवश्य करता है। कोई व्यक्ति इतिहास से प्रतिशोध नहीं ले सकता, इतिहास स्वयं अपना प्रतिशोध होता है’। 


लेखक द्वारा वर्णित औपनिवेशिक गुलाम देश आज 3 देशों में बंट चुका है। कम्पनी ने जहां कदम रखा था वह कोई बंजर भूमि नहीं थी बल्कि सोने की चिड़िया थी। ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापार चौकियां मजबूत किले बन गई और स्थानीय व्यापारियों को सेना द्वारा उजाड़ा जाने लगा।

इस किताब को लेखक ने मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा था। लेकिन अनुवादक का नाम किताब में नहीं होता तो हमें एहसास भी नहीं होता है इसका अनुवाद किया गया है।  थरूर ब्रितानियों की लूट का वर्णन कुछ यूं करते हैं, ‘एक स्पंज की तरह गंगा के तटों से सारी समृद्धि चूस कर उसे थेम्स के तटों पर निचोड़ रहे हैं’। 

हॉरेस वालपोल के 1790 में किए गए व्यंग्य को उद्धृत करते हुए कहते हैं, ‘इंग्लैंड अब क्या है? भारतीय दौलत की हौदी’। लॉर्ड विलियम बेंटिक की पंक्तियां, ‘सूती कपड़े के बुनकरों की हड्डियां भारत के मैदानों में बिखरी पड़ी थीं' से लेखक बताना चाह रहा है कि कैसे भारतीय उद्योग को नष्ट कर दिया गया था।

यह किताब 1600 से लेकर 1947 तक के काल को समेटते हुए ब्रिटिश शासन के काले कारनामों को उजागर करती है। लेखक कहता है कि 'कंपनी चूंकि भारतीयों से उनके सामर्थ्य से अधिक भुगतान लेती थी अत: अतिरिक्त रकम रिश्वतखोरी, लूटपाट और हत्या तक से जुटाई जाती थी।’

शशि थरूर उपनिवेश-उपरांत की समस्याओं की भी बात भी करते है। वर्तमान चुनौतियों के तार कहीं ना कहीं औपनिवेशिक व्यवस्था की देन हैं। और इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में प्रवेश के पहले इस इतिहास का क्या महत्त्व है? इस पर लेखक कहते हैं, ‘कल की आनेवाली अराजकता संभवत: कल की औपनिवेशिकता के व्यवस्था के प्रयासों के कारण होगी…। 

लेखक का इस लाइन में विश्वास है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का इतिहास जिंदा इतिहास है। आज भी भारत में ऐसे भारतीय जीवित हैं जो ब्रिटिश साम्राज्य के अन्याय को याद करते हैं। इतिहास का संबंध अतीत से होता है लेकिन इसे समझने का कर्तव्य वर्तमान को होता है। 

थरूर औपनिवेशिक अतीत से औपनिवेशिक-उपरांत तक का सतत संवाद इस पुस्तक में करा रहे हैं। उनकी  राजनीतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक, सांस्कृतिक समझ से यह इतिहास को एक नए पाठ के रूप में पढ़ने को प्रेरित करती है। लेखक ने सही ही कहा है कि इतिहास न तो माफी के लिए है और न बदले के लिए है। इतिहास, इतिहास के लिए है।

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