पूर्व प्रवास भाग-2: लोहित नदी के आसपास देशाटन


दिसंबर, 2024: लोहित नदी (तिब्बत) चीन से निकलती है और अरुणाचल प्रदेश के उत्तर में प्रवेश करते हुए प्रदेश के पूर्वी और मध्य में मुख्यतया विचरण करती है। रोइंग में होमस्टे का अपना आनंद है। रोइंग में वाइल्डलाइफ से लेकर भीष्मकनक नगरफोर्ट जाया जा सकता है। मैं कुछ जगह गया। 

रोइंग से अरुणाचल प्रदेश के उत्तर में अनिनी जैसी जगह जाया जा सकता है। रोइंग एक छोटा सा कस्बा है, जिसमें करीब 100 से अधिक घर और दुकानें होगी। खाने में शाकाहारी में दाल-चावल मिला। चावल यहाँ के भारी होते है, अगर थोड़ा भी खा लेंगे तो पेट भर जायेगा। अरुणाचल प्रदेश में जब से आया हूँ, तब से यही खा रहा हूँ। 

भीष्मकनकनगर फोर्ट घूमते हुए मैं लोहित की और चला। रास्ते भर में क्या खूबसूरत नजारे। लोहित नदी के साथ हम आगे जिले से तेजू मुख्यालय की ओर बढ़ रहे थे। नदी के किनारे लोग खाना बनाकर, टेंट लगाकर प्राकृतिक दृश्यों का आनंद ले रहे थे। बीच-बीच में बड़े-बड़े पहाड़ और इन पहाड़ों में होलनुमा गुफ़ा देखकर मन रोमांच से भर जा रहा था। 

इन दृश्यों को मन कर रहा था, अपने ज़ेहन में हमेशा के लिए क़ैद कर लूँ। ये पूर्वोत्तर भारत का सबसे ख़ूबसूरत नजारा था, जो रोमांच से भरपूर था। तेजू, मुख्यालय लोहित पहुँचे। बड़ा ख़ूबसूरत चौराहा मिला। तेजू चौक के सामने अरुणाचल प्रदेश के बड़े ख़ूबसूरत नौजवान खड़े थे, जिनका क़द छोटा था लेकिन वे बड़े प्यारे लग रहे थे। दोनों तरफ़ दुकानें थी। एक तरफ़ देखा तो सिनेमा भी था, जिस पर पुष्पा-2; 5 दिसम्बर से चल रही थी। 

लोहित जिले से मैं अजाँव जिले की ओर बढ़ रहा था। जिस तरीके से बढ़ते जा रहे थे, रास्ता बड़ा कठिन था। रास्ते में गड्डे, कीचड़ वाली सड़के, खाई और टूटे हुए पुल मिल रहे थे। बीच-बीच में बॉर्डर रोड ऑर्गनेशन द्वारा बनाई गई अच्छी सड़के मिल रही थी। जो थोड़ा रास्ते को और आसान बना रही थी। 

पूर्वोत्तर भारत के सबसे अंतिम बिंदु पर जाने का पहाड़ जैसा लक्ष्य था। सामने कठिन चुनौतियाँ थी, लेकिन हौसले बुलंद थे। तमाम मुश्किलों को पार करते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। रात में ये परेशानी और बढ़ गई। क्योंकि अंधेरा होने से रास्ते और खतरनाक हो गए। दूर-दूर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। चारों तरफ़ अंधेरा था। इंटरनेट काम कर नहीं रहा था, मैप का कोई भरोसा नहीं था। कोई बताने वाला भी नहीं था। सिर्फ़ साइन बोर्ड ही सहारा था। 

साइन बोर्ड भी छिप गए थे, क्योंकि कई जगह सड़क बनने की वजह से पत्थर उस पर गिर पड़े थे। रास्ते में गाड़ी में तेल भी खत्म होने वाला हो गया था। मैंने डिब्रूगढ़ में एक टैक्सी गाड़ी ले थी, जिस पर पूरे यात्रा कराने की जिम्मेदारी थी। डिब्रूगढ़ में उसमें तेल भरवाया गया था। और करीब 500 किलोमीटर चलने के बाद उसका येलो लाइट चल गया था। 

गाड़ी का येलो लाइट चलना मेरे लिए रेड लाइट थी। रास्ते में एक दुकान मिला, वहाँ से फिर ग्रीन सिंगल जला। अजाँव जिले के मुख्यालय हवाई को छोड़ते हुए हम आगे बढ़ गए। एक बार हम ग़लत रास्ते पर भी चले गए। इस दुर्गम इलाक़े में हमने भारत के प्रथम गाँव काहो में रुकने का बनाया था। 

भारत के प्रथम गाँव काहो में दो-तीन जगह होम स्टे करने की व्यवस्था था। किबिथू में अभी रुकने की व्यवस्था कोई नहीं है। काहो जाते वक्त रात बहुत हो गई थी। यहाँ रात के 7 बजे, मैदानी भागों के रात 12 बजे के बराबर है क्योंकि यहाँ शाम को 4 बजे से अंधेरा होने लगता है। शाम 5 बजे तक रात हो जाती है। 

काहो जाते वक्त रात में खतरनाक करोती ब्रिज मिला। खतरनाक इस वजह से कह रहा हूँ कि आधा ब्रिज लोहे से और आधा ब्रिज काठ के लकड़ी का था। ये ब्रिज करीब 200 मीटर लंबा था और लोहे के तारों के सहारे रुका हुआ था। आधा पहुँचने के बाद पता चला कि आगे लकड़ी का है, पैरो के तले से जमीन खिसक गई। 

मैंने चेक किया, लगा मजबूत है तो आगे बढ़ गए। करोती ब्रिज को पार करने के बाद सांस में सांस आई। जिंदगी में एक बार फिर मौत को सामने से देखा। फिर पहाड़ो का एक छोटा सा सफ़र शुरू हुआ। अब हम अपने गंतव्य के नज़दीक पहुँच रहे थे। 
रात 11 बजे के लगभग भारत के प्रथम गाँव काहो पहुँचा। बड़ी शांति थी, गाँव में लाइट थी जोकि अच्छा लगा। भारत सरकार के वाइब्रेटं विलेज प्रोग्राम से काहो समृद्ध हो गया था। आधी रात को काहो अपनी छटा बिखेर रहा था। पहाड़ों में कहीं दूर उम्मीद की किरण दिख रही थी, लगा कह रही हो सुबह जल्द होगी। 

विकास धर द्विवेदी 
19 दिसंबर, 2024

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