सुबह-सुबह नारायण सरोवर के बाद मैं लखपत ग्राम पंचायत होते हुए इसके फोर्ट पहुँचा। लखपत फोर्ट जो कभी एक समृद्ध बंदरगाह वाला नगर था। किले की दीवारों से दूर-दूर तक फैला कच्छ का सूखा भूभाग दिखाई देता है, और यहाँ बहती हवा जैसे उस उजड़े वैभव की कहानी सुनाती है। लखपत का नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यहाँ लाखों का रोज़ाना कारोबार होता था।
आज के इसे मुंद्रा पोर्ट से इसकी तुलना की जा सकती है। यहाँ गुरु नानक देव जी का भी पावन स्मारक है, क्योंकि वे यहाँ प्रवास पर आए थे। किले की दीवारों पर चढ़कर जब मैंने देखा- दूर-दूर तक कच्छ का रण ही था। रिफ्यूजी सहित कई फ़िल्मों की भी यहाँ शूटिंग हुई है।
लखपत से दयापुर, सियोट, हाजीपीर होते हुए; मैं धोरंडों के पास कच्छ रण के प्रवेश द्वार पर पहुँचा। यह वह अनोखा भूभाग जहाँ धरती नमक की चादर ओढ़े हुए है। जुलाई के महीने में यहाँ थोड़ी नमी और मानसून की दस्तक से मिट्टी में नमी थी, लेकिन रण के कुछ हिस्सों में पानी भर गया था। दूर-दूर का कोई दिख नहीं रहा था। एक जगह मैंने थोड़ा अंदर जाने की कोशिश की, लेकिन नमी के कारण मेरा पैर दलदल में फँसने लगा, मैंने आगे जाने का विचार त्याग दिया।
कच्छ रण के जीरो पॉइंट पर, टावर पर चढ़कर मैंने रण को चारों तरफ़ से देखा। पाकिस्तान सामने देखा जा सकता था। मैंने देखा कि रण के किनारों पानी नहीं भरा हुआ है या हल्का सूख गया है। इस तरह अभी इसका रंग हल्का भूरा सफेदी के साथ लाल नजर आ रहा है। ज़्यादा लोग नहीं थे, आसानी से घूमने में मजा आ गया।
इसके बाद मैं “स्वर्ग का मार्ग" (यह एक 30 किलोमीटर लंबा राजमार्ग है जो सफेद नमक के रेगिस्तान से होकर गुजरता है, और अपनी प्राकृतिक सुंदरता और अनोखे ड्राइविंग अनुभव के लिए जाना जाता है, यह सड़क घड़ुली को संतालपुर से जोड़ती है) से धौलावीरा पहुँचा।
धौलावीरा (खदिर का शुष्क द्वीप), हड़प्पा सभ्यता/सिन्धु घाटी सभ्यता का एक प्रमुख और संरक्षित पुरातात्विक स्थल है। इसे 2021 में यूनेस्को (UNESCO) द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई थी। यहाँ खुदाई में मिले जल-प्रबंधन प्रणाली, सभागार और शहरी योजना दर्शाते हैं कि हज़ारों साल पहले भी भूमि ज्ञान, विज्ञान और व्यवस्था की मिसाल थी। भरी दोपहरी में मैंने धौलावीरा के इतिहास और इसके महत्व को समझा।
धौलावीरा की ईंटों और दीवारों को देखते हुए ऐसा लग रहा था कि इतिहास आज भी साँस ले रहा है— बिना बोले, बिना रुके। यह स्थल किसी पाठ्यपुस्तक से कहीं अधिक सजीव लगता है। मुझे पता चला कि प्राचीन स्थल की खुदाई 1990-2005 के दौरान डॉ. रविन्द्र सिंह बिष्ट की देखरेख में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई थी। मार्च महीने में माननीय राष्ट्रपति जी ने भी इस स्थल का दौरा किया है।
अब इधर से लौटते हुए मैं काला डूंगर गया। इसे कच्छ का सबसे ऊँचा स्थान माना जाता है, यहाँ से पूरे रण का दृश्य, एक विशाल सफेद कैनवास की तरह दिखता है। पहाड़ी की चोटी पर स्थित दत्तात्रेय मंदिर है, सूर्यास्त के नजारे का कहना ही क्या! यहाँ जंगली गीदड़ों को मंदिर से प्रसाद खिलाया जाता है। यह सदियों पुरानी परंपरा आज भी जीवित है, और यह मनुष्य व प्रकृति के बीच के रिश्ते को एक बार फिर से परिभाषित करती है।
काला डूंगर के रास्ते में चुंबकीय क्षेत्र भी आता है। मैंने चुंबकीय क्षेत्र का गाड़ी में बैठकर अनुभव महसूस किया। बंद गाड़ी अपने-आप ढलान से पीछे की ओर चली जा रही थी। वहीं दूसरी तरफ़ सूरज ढल रहा था और हमारी गाड़ी ने भुज की ओर रफ़्तार ले ली थी।
विकास धर द्विवेदी
15 जुलाई 2025
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